एक गिलहरी आंगन में
रोज-रोज आ जाती है
अपने नन्हें कदमों की
छाप वो दे जाती है
फुदक-फुदक कर आंगन में
इठलाती बलखाती है
हरपल वो मेरे मन में
एक नया उत्साह जगाती है
एक गिलहरी आंगन में
रोज-रोज आ जाती है
जब भी उसको देखुं तो
मन मेरा कर जाता है
उसको लेकर हाथों में
उसके बदन को सहलाऊं
पर वो इतनी तेज है
कभी नहीं आती हाथों में
पलक झपकते ही झट से
वो गायब हो जाती है
एक गिलहरी आंगन में
रोज-रोज आ जाती है।
Written By Radha Rani
No comments:
Post a Comment