Tuesday, October 17, 2017

दीया..


मिट्टी मेरी आत्मा है
दो हाथ मेरे जन्मदाता
खुद को जलाकर...
करती हूं रौशन...
मंदिर और घर-आंगन
पर ये बात हो गई पुरानी
पुरानी हो गई मिट्टी
थक गए वो हाथ
बदल गई वो नज़रें
जिनके घर होता था मुझसे
त्योहारों का दशहरा।।

रचना-राधा रानी...

ये मेरी कविता उस दीया को समर्पित है, जो खुद को जलाकर दुसरों के घर में रौशनी भर देती है। हर पर्व त्यौहारों में इनका जलना शुभ माना जाता है। इनसे निकली रौशनी पुरे वातावरण को शुद्ध कर देती है। बिना इनके कोई भी पुजा अधुरी होती है। इनकी चमक से घर-आंगन का कोना-कोना चमक उठता है। पर आज इनकी चमक कहीं खो सी गई है।
इसका कारण बस एक ही है... लोगों का बदलता नजरिया। लोग आज बाहरी चकाचौंध पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। रंग बिरंगी लाइट्स लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे है। जिसके कारण विदेशी दीया के आगे हमारी देशी दीया फिकी पड़ती जा रही है। इस चकाचौंध के आगे सिर्फ देशी दीया ही नहीं बल्कि उनको बनाने वाले हाथ भी इन चमक में कहीं खोते जा रहे हैं । जहां हम अपने घर में रौशनी भर रहे होते हैं, वहां वो अपने बनाये दीयों में तेल को तरस जाते हैं। पर्व-त्योहार , इनके घर रौशनी भरी खुशियां नहीं बल्कि अंधेरों भरा गम लेकर आतें हैं।
पर इनका ये अंधेरा हम खुशियों से भर सकते हैं। बस एक पहल करनी होगी...हम अपनी खुशियों को मिट्टी के दीप से ही रौशन करें तो।
करेंगे ना आप...?

Written by: Radha Rani

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