घर...एक ऐसा ऐहसास जिसका नाम सुनते ही लगता है की जन्नत मिल गया हो...आप कहीं भी रहें, कितना भी व्यस्थ क्यों न रहें, पर घर का नाम सोचते ही एक सुकुन का ऐहसास हो जाता है। अगर बात करें हम मरदों की तो उनका आसियाना एक ही होता है..जहां वो ठाठ से रहते हैं और हक से कहते हैं मेरा घर, मैं घर आ गया ...आदि। उनके मन में कुछ भी अलग तरह की बात मन को विचलित नहीं करती होगी...पर एक महिला की बात करें तो उनको दोघरों को देखकर चलना होता हैं...मायका और ससुराल...दोनो घर के लोगों की फिलींग का ख्याल रखना होता है
पर अगर औरत उन दोनो घरों को सुकुन वाला माने तो ऐसा काफी प्रतिशत कम है...
जब एक लड़की की शादी होती है तो वो बरे अरमान से अपने माता -पिता का घर छोड़कर आती है की उसको उसका अपना घर मिला है..वो बरे आराम से अपने हमसफर के साथ रहेगी बिना किसी रोकठोक के...पर जब वो वहां अकेला महसुस करे...उसको कुछ अच्छा बुरा बताने वाला कोई ना हो तो वो क्या करेगी
...वो अपने मायके जा सुकुन की तलाश करेगी...
कुछ भी कहे जमाना की लड़की ही वजह होती है घर तोड़ने की ...पर मेरा मानना है की परिवार भी जिम्मेवार होता है....
जब कोई भी जानवर को आप तकलीफ देते हैं तो वो प्रतिक्रिया देता है... यहां हम तो इंसान हैं...
एक लड़की के लिए ससुराल दोनो सुरत में सिर्फ एक घर बन कर रह जाता है जब ससुराल में उसपर जुल्म हो या वहां कोई पुछने वाला ना हो...
जब किसी लड़की पर जुल्म होता है तो उसको पता होता है की किसकी गलती है या क्या सुधार करना होगा...पर जहां केई समझे ना, नजरअंदाज कर के उसे रखे ...उसको एहसास दिलाए की तुम कुछ नहीं, तुम्हारी जरूरत नहीं तब क्या करे वो लड़की???...वो मायके के घर में ना सुकुन तलासे???..
इसिलिए जब बहुएं बिमार पड़ती हैं तो मायके आ जाती हैं...ताकी दिमाग से ही नहीं...शरीर से भी आराम पा सके...
क्योंकि मायके में जन्म देने वाली मां जो होती है....
ये लिखकर मैं अपने एक दोस्त की दर्द को बयां कर रही हुँ......माफी अगर किसी को बुरा लगे...
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